❤❤श्री द्वारिकाधीश❤❤
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भज गोविन्दम्
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे।। १।।
रे मूढ़ मन ! गोविन्द की खोज कर, गोविन्द का भजन कर और गोविन्द का ही ध्यान कर। अन्तिम समय आने पर व्याकरण के नियम तेरी रक्षा न कर सकेंगे।
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां कुरू सद्बुद्धिं मनसिवितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम्।। २।।
रे मूढ़ ! धन संग्रह की तृष्णा छोड़ दे। मन में वैराग्य लाकर सत् तत्त्व का चिन्तन कर। अपने कर्म फल के अनुसार जो धन प्राप्त हो उसी से अपने मन को सन्तुष्ट कर।
नारीस्तनभर नाभीदेशं दृष्ट्रवा मा गा मोहावेशम्।
एतन्मांसावसादि विकारं मनसि विचिन्तय वारं वारम्।।३।।
सुन्दर स्त्री के नाभिदेश को देखकर मोह में मत पड़। यह तो केवल मांस और मज्जा का विकार है। अपने मन में इस बात का बार-बार विचार कर।
नलिनीदलगत जलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशक्वपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् ।। ४।।
कमल-दल के ऊपर जल की बूंद अत्यन्त अस्थिर होती है। जीवन भी इसी प्रकार अस्थिर है। इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि सारा संसार व्याधि, अभिमान, शोक आदि से ग्रसित है।
यावद्वित्तोपार्जन सक्ताः तावन्निज परिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जर देहे वार्ता कोऽपि न पृच्छति गेहे।। ५।।जब तक धनोपार्जन की शक्ति है तभी तक तुम्हारे परिवार के लोग तुम से प्रेम रखते हैं। वृद्धावस्था में शरीर जर्जर हो जाने पर तुम्हारी बात कोई न पूछेगा।
यावत्पवनो निवसति देहे तावत्पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या विभ्यति तस्मिन्काये।। ६।।
जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक घर में तुम्हारी कुशल पूछी जाती है। प्राण निकलने पर उसी शरीर से पत्नी तक भयभीत होने लगती है।
बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरूणस्तावत्तरूणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः परमे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः।।७।।
बचपन में खेलों में आसक्ति रहती है, युवावस्था में तरूणी से मोह रहता है और वृद्धावस्था में चिन्तायें आ घेरती हैं किन्तु परब्रह्म परमात्मा से किसी को प्रेम नहीं है।
का ते कान्ता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कः कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः।।८।।
कौन तुम्हारी पत्नी है ? कौन तुम्हारा पुत्र है ? वस्तुतः संसार बड़ा विचित्र है। तुम किस के हो, कहाँ से आये हो ? हे भाई कभी इस बात का भी विचार करो।
सत्सङ्गत्वे निस्सङ्गत्वं निस्सङ्गत्वे निर्मोहत्वम्।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः।। ९।।
सत्संग से अनासक्ति प्राप्त होती है, अनासक्ति से मोह के बन्धन टूटते हैं, मोह टूटने पर शाश्वत तत्त्व की प्राप्ति होती है और शाश्वत तत्त्व पाने पर जीवन-मुक्ति का लाभ प्राप्त होता है।
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः।। १०।।
जैसे युवावस्था बीतने पर काम-विकार नष्ट हो जाता है, और जल सूख जाने पर तालाब नहीं रह जाता है वैसे ही धन नष्ट हो जाने पर परिवार नहीं रह जाता और तत्त्व-बोध होने पर संसार नहीं रह जाता है।
मा कुरू धनजनयौवनगर्व हरति निमेषात्कालः सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं बुध्वा ब्रह्मपदं त्वंप्रविश विदित्वा।।११।।
धन, जन और यौवन के लिए अभिमान न करना चाहिए। काल इन सब को क्षण मात्र में नष्ट कर देता है। इन सब को माया का भ्रम समझो और शीघ्र ही ब्रह्म साक्षात्कार प्राप्त करो।
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।१२।।
दिन और रात, प्रातः और सायं, सूर्य और गर्मी बार-बार आते हैं और चले जाते हैं। काल की इस क्रीड़ा के साथ आयु भी बीतती जा रही है। फिर भी आशाओं की आंधी से कोई नहीं बचता।
का ते कान्ता धनगतचिन्ता वातुल किं लत नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका।। १३।।
रे भ्रान्ति में पड़े मूढ़ ! स्त्री, धन आदि की चिन्ता क्यों किया करता है। क्या तेरे ऊपर शासन करने वाला कोई नहीं है। तीनों लोकों में केवल सत्संग ही वह नौका है जो जन्म-मरण के सागर से तुझे पार कर सकती है।
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः काषायाम्बर बहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढ़ो ह्वुदरनिमित्तं बहुकृतवेषः।। १४।।
जटाधारी, बाल मुड़ाये, एक-एक कर सिर के सब बाल खिचवाये और काषायवस्त्र धारण किये हुए नाना वेषधारी संन्यासी हैं। वे आँखों से देखते हुए भी अंधे हैं। वे मूढ़ नाना प्रकार के वेष केवल पेट भरने के लिए धारण करते हैं।
अग्ङं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्।। १५।।
वृद्धावस्था में शरीर जर्जर हो गया है, सिर के बाल सफेद हो गये हैं, दाँत गिर गये हैं, छड़ी के सहारे चलना पड़ता है अर्थात् मृत्यु निकट आ गई है किन्तु आशाओं का बन्धन अब भी नहीं टूटा।
अग्रे वहिः पृष्ठे भानुः रात्रौ चुबुक समर्पित जानुः।
करतल भिक्षस्तरूतल वासः तदपि न मुञ्चत्याशा पाशः।।१६।।
आगे अग्नि, पीछे सूर्य और रात्रि में घुटनों में ठोढ़ी लगाये रहने वाले तथा हाथ पसार कर भीख मांगने वाले और पेड़ के नीचे सोने वाले भी आशा के बन्धनों से मुक्त नहीं हैं।
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