वृन्दावन, रसिकन रजधानी। जा रजधानी की ठकुरानी, महरानी राधा-रानी। जा रजधानी पनिहारिनि बनि, चारिहुँ मुक्ति भरति पानी। जा रजधानी रज अज याचत, प्रान-सजीवनी सम जानी। जा रजधानी बिच नहिं पावत, टुक प्रवेश कमला वानी। कह 'कृपालु' जेहि महिमा कछु-कछु, लालिहिं कृपा लाल जानि।। - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज, प्रेम रस मदिरा भावार्थ:–एक रसिक कहता है कि–श्रीवृन्दावन–धाम रसिकों की राजधानी है। जिस राजधानी में वृषभानुनन्दिनी स्वामिनी रूप में सुशोभित हैं। जिस राजधानी में चारों मुक्तियाँ पनिहारिन बन कर पानी भरती हैं। जिस राजधानी की धूलि को प्राणाधिक प्रिय जानकर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा भिक्षुक बनकर भिक्षा–याचना करता है। जिस राजधानी में महालक्ष्मी तथा सरस्वती को प्रवेश का अधिकार प्राप्त नहीं है। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इतना ही कहना पर्याप्त है कि वृन्दावन की महिमा किशोरी जी के कृपा–कटाक्ष से श्यामसुन्दर भी कुछ–कुछ ही जानते हैं।